22 अप्रैल 2024

भुलाए ने भूले जो तारीख

समय गुजरता रहता है. दिन, महीने, साल भी गुजरते जाते हैं. इनके साथ-साथ तारीखें भी गुजरती जाती हैं मगर कुछ तारीखें ऐसी होती हैं जो गुजरने के बाद भी अपनी जगह पर रुकी रहती हैं. ऐसा नहीं कि ये तारीखें दिन, महीने, साल के साथ आगे नहीं बढ़तीं, ये भी आगे बढ़ती हैं मगर इन तारीखों में मिले निशान ज्यों के त्यों बने रहते हैं, जिसके कारण ऐसा लगता है कि ये तारीख ज्यों की त्यों अपनी जगह पर रुकी हुई है. लगभग सभी के जीवन में ऐसी कोई न कोई तारीख होती होगी, काश! ऐसी कोई तारीख किसी के जीवन में न आये जो हर पल, हर क्षण अपने होने का दुखद एहसास करवाती रहे. तमाम सारी दुखद तारीखों के बीच एक ऐसी ही दुखद तारीख हमारे लिए 22 अप्रैल है. ये एक ऐसी तारीख है जिसे चाह कर भी न तो हम भुला पा रहे हैं और निश्चित रूप से ताउम्र हमारे अभिन्न में इस तारीख को भुला सकेगा.

 



इस तारीख में जो होना था वो तो हो ही गया मगर इसे न भूल पाने का कारण इस तारीख को मिले वे निशान, वे ज़ख्म हैं जो हर पल साथ हैं, सोते-जागते अपना एहसास कराते हैं. एक दुर्घटना के बाद जो ज़ख्म, जो निशान, जो दर्द मिला उसके बाद बहुत से अपनों-परायों ने सांत्वना देने के लिए, हिम्मत बढ़ाने के लिए कहा कि समय के साथ इसे भूलने की कोशिश करो. अपने आपको काम में व्यस्त करके इस दुर्घटना के ज़ख्म को, निशान को भूलने का प्रयास करो. चूँकि अपने विश्वास, अपनी शक्ति पर विश्वास अखंड है तो सोचा कि एक बार ऐसी कोशिश करने में क्या समस्या है. आखिर जब खुद को मौत के मुँह के सामने खड़ा पाकर भी वापस लाने में किसी तरह की समस्या हमने खुद में महसूस नहीं की तो उस दुर्घटना के ज़ख्म को, दर्द को भुलाने में क्या समस्या? यही सोचकर पिछले कुछ सालों में लगातार प्रयास किया कि इस दर्द को भुला सकें मगर लाख चाहने के बाद भी इसे भुलाना संभव न हुआ.

 

यदि किसी एक दिन के आरम्भ को सुबह से जोड़कर देखें तो आखिर इस ज़ख्म को कैसे भुला दें जबकि नींद खुलने के बाद अपने दोनों पैरों को सामान्य स्थिति में लाने के लिए बीस-पच्चीस मिनट तक उनकी मालिश करनी होती है? कैसे भुला दें अपनी शारीरिक अक्षमता को जबकि स्वयं को खड़ा करने के लिए एक कृत्रिम पैर की आवश्यकता पड़ती है? कृत्रिम पैर के सहारे दोनों पैरों के दर्द को खुद में पीते हुए दैनिक कर्म संपन्न किये जाते हैं, इसे कैसे भूला जा सकता है? घर से बाहर जाने के लिए तैयार होने के पहले दाहिने पैर के क्षतिग्रस्त पंजे पर पट्टी के बाँधने का अनिवार्य कृत्य करना कैसे भुला देगा कि बिना इस पट्टी के चलना संभव नहीं? रात को सोने की कोशिश में बार-बार पंजे को इधर-उधर टकराने से बचाने का काम करते हुए नींद भी लेना, ऐसी कोशिश में कैसे भूल जाएँ 22 अप्रैल को? 2005 में हुई दुर्घटना के बाद से आज इस पोस्ट के लिखे जाने तक एक पल, एक क्षण ऐसा नहीं गुजरा जबकि दाहिने पंजे में, पैर में दर्द न हुआ हो तब कैसे भूल जाएँ इस दर्द को? अपने काम के दौरान, तमाम सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, अकादमिक गतिविधियों के दौरान बाँए कृत्रिम पैर द्वारा दिए जा रहे कष्ट को सहते हुए कैसे भूल जाएँ कि हमारा एक पैर नहीं है?

 



कई बार लगता है कि बहुत कुछ ऐसा होता है जिसके बारे में कहना बहुत आसान होता है मगर उस कहे को व्यावहारिक रूप देना बहुत कठिन होता है, लगभग असंभव होता है. ऐसा ही कुछ असंभव सा अब हमारे साथ जुड़ा हुआ है. ऐसा ही आजीवन साथ  रहने वाले दर्द हमारे साथ है. हमारे शरीर का अंग न होने के बाद भी शरीर का अंग बने कृत्रिम पैर के साथ पूरे जीवन भागदौड़ करनी है. किसी समय मैदान पर दस हजार मीटर की दौड़ लगाने वाले एथलीट का एक कदम अब बिना छड़ी के नहीं उठता है. ऐसी तमाम स्थितियों को, दिक्कतों कि साथ लेकर एक-एक पल गुजारते समय कैसे भुलाया जा सकता है इस तारीख को? बस आज इस तारीख को याद करते हुए शाम गुजर गई, रात गुजरने वाली है. दर्द जो हमेशा साथ रहना है, उसके लिए क्या रोना? जो ज़ख्म ज़िन्दगी भर के लिए यारी निभाने आया है उसे कैसे भुलाया जाये? ये भी उन्हीं मित्रों, रिश्तेदारों की तरह हैं जिनको छोड़ा भी नहीं जा सकता और जिनसे पीछा छुड़ाया भी नहीं जा सकता. 


 

14 अप्रैल 2024

रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा के साथ अन्याय



रानी लक्ष्मीबाई की यह प्रतिमा उत्तर प्रदेश के जनपद जालौन में उरई नगर में लगी हुई है. शहर के मध्य में स्थित टाउनहॉल के सामने स्थित इस प्रतिमा के साथ इस तरह का अन्याय, अशोभनीय हरकत लगभग प्रत्येक पर्व, त्यौहार, जयंती आदि पर की जाती है. सजावट के नाम पर कभी घोड़े का सहारा लिया जाता है तो कभी रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा सहारा बनती है. 

कई-कई बार इस बारे में सम्बंधित व्यक्तियों को जानकारी भी दी गई, सुधार भी करवाया गया मगर ये हर बार की कहानी बनी हुई है. ये नया हाल इसी 14 अप्रैल को अम्बेडकर जयंती के अवसर पर किया गया है. प्रतिमा सजाने के चक्कर में बिजली की झालर को घोड़े के कान से बाँध दिया गया है. 

अब इसके साथ-साथ आप लोग रानी लक्ष्मीबाई की तलवार को न देखने लगिएगा. अंग्रेजों द्वारा झुकाई न जा सकी तलवार को प्रशासन द्वारा बराबर झुकाए रखा गया है, तोड़े रखा गया है. इस बारे में कई बार लिखित रूप से शिकायत की जा चुकी है मगर प्रशासन के कानों में जूँ नहीं रेंगती है. 

स्वतंत्र देश में हम लोग अभिशप्त हैं शायद अपने महानुभावों की ये दुर्दशा, अपमान देखने को. 



 

11 अप्रैल 2024

उम्मीदों की प्याली : एक अभिनव प्रयोग

पिछले दिनों 'उम्मीदों की प्याली' का आना हुआ. इसे लेकर मित्रों में, परिचितों में एक उत्सुकता दिखाई दी. प्रकाशन पूर्व जब भी इस बारे में चर्चा हुई तो सभी को यही बताया गया कि इस पुस्तक में एक तरह का प्रयोग किया गया है.



अब प्रकाशन पश्चात् इस प्रयोग से कितने लोग पुस्तक के माध्यम से परिचित हुए, इसकी जानकारी नहीं मगर प्रयोग के बारे में पूछा बहुत लोगों ने. पुस्तक कौन खरीदेगा, कौन नहीं... ये अलग विषय है, यहाँ इस पुस्तक में किये गए प्रयोग के बारे में कुछ शब्द.

कविताओं के रूप में होने के बाद भी इसमें संकलित रचनाओं को कविता नहीं कह सकते. असल में किसी कविता को पढ़ कर, बातचीत के दौरान उभरे पद्य विचार को, दो-चार काव्य-पंक्तियों के प्रत्युत्तर के रूप में उभरी काव्य-पंक्तियों को संकलित करके पुस्तक का रूप दे दिया.



इस प्रयोग के साथ-साथ एक प्रयोग ये भी किया कि इस पुस्तक में संकलित सभी 80 काव्य-रचनाओं को एक-एक स्केच के द्वारा सजाया है.




रचनाकार-द्वय के बीच बातचीत के रूप में उभरी काव्य-रचनाओं को स्केच भी रचनाकार-द्वय के द्वारा मिले हैं.
उम्मीदों की प्याली को आप अपने हाथों में लेकर उसका स्वाद लेंगे तो एहसास और भी सुखद होगा.





'उम्मीदों की प्याली' श्वेतवर्णा प्रकाशन की वेबसाइट www.shwetwarna.com पर उपलब्ध है.



 

03 अप्रैल 2024

छेड़छाड़ भी सकारात्मक हो सकती है


घर की छत लगातार इस तरह के मनमोहक, रंग-बिरंगे गमलों से सजाई जा रही है. ये गमले उपयोग में आ चुकी वस्तुओं के साथ सकारात्मक छेड़छाड़ करके बनाये जा रहे हैं. 

ये गमले बिटियारानी और उनकी मम्मी की कलाकारी का सफल हैं. 

वैसे एक बात तो समझ में आई कि छेड़छाड़ भी सकारात्मक हो सकती है. 





 

30 मार्च 2024

बचपने के सुख से दूर बचपन

बोर्ड परीक्षाओं के साथ-साथ घरेलू परीक्षाओं की समाप्ति के बाद भी बच्चे न तो उत्साहित से दिख रहे हैं और न ही पढ़ाई से मुक्त नजर आ रहे हैं. लगभग सभी बच्चों के चेहरे पर एक तरह का तनाव सा दिखाई पड़ रहा है. इनको देखकर लग ही नहीं रहा है कि इन्हीं बच्चों ने अभी कुछ दिन पहले खूब मेहनत करके परीक्षाएँ दी है. ये सारे के सारे बच्चे आज भी किसी परीक्षा को देते से नजर आते हैं. ये सच भी है, क्योंकि एक समय था जबकि परीक्षाएँ समाप्त होने के बाद कुछ दिनों तक सभी बच्चे दबाव मुक्त होकर अपनी छुट्टियों को बिताया करते थे. आजकल देखने में आ रहा है कि परीक्षा के दबाव से निकलते ही उनके ऊपर परीक्षा परिणाम का दबाव हावी होने लगता है. अंक कैसे आयेंगे? कौन सा ग्रेड मिलेगा? प्रवीणता सूची में नाम आएगा या नहीं? ऐसे एक-दो नहीं सैकड़ों सवाल उनके मन-मष्तिष्क पर दबाव बनाने लगते हैं. इस दबाव के साथ-साथ एक दूसरी तरह का दबाव भी अपनी गिरफ्त बनाने की कोशिश करता है. बच्चों के ऊपर जहाँ परीक्षा परिणाम का दबाव उनके सामाजिक, पारिवारिक और शैक्षणिक वातावरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है वहाँ एक अन्य प्रकार का दबाव उन पर व्यावसायिक स्थिति के चलते बनाया जाने लगता है. अभी परीक्षा परिणाम निकला नहीं है मगर शिक्षण संस्थानों द्वारा अगले सत्र में प्रवेश लेने के लिए युद्ध-स्तर पर तैयारियाँ चलने लगी हैं. विज्ञापनों, व्यक्तिगत संपर्कों, फोन कॉल्स के द्वारा अभिभावकों पर डोरे डालने का काम शुरू हो गया है.

 



देखा जाये तो समस्या न तो परीक्षा है, न परीक्षाफल और न ही अगली कक्षा में प्रवेश की रस्साकशी, असल समस्या है बच्चों के हिस्से में आने वाली गर्मियों की छुट्टियों पर डाका डालने की. सुनने, पढ़ने में ये भले ही अजीब सा, अलोकतांत्रिक सा लगे मगर सच यही है कि अब बच्चों के हिस्से में वे गर्मियों की छुट्टियाँ नहीं आती हैं, जिन्हें वास्तविक रूप में छुट्टियाँ कहा जाता है. परीक्षा परिणाम अभी क्या होगा, इससे किसी तरह का सरोकार रखे बिना शिक्षण संस्थानों द्वारा बच्चों का प्रवेश अगली कक्षा में कर लिया जाता है. नए शैक्षिक सत्र के नाम पर चंद दिनों चलाई गई कक्षाओं के बाद बोलचाल में स्वीकारी जाने वाली गर्मियों की छुट्टियों के लिए बच्चों के बस्तों में इतना सारा अनावश्यक काम गृहकार्य के नाम पर ठूँस दिया जाता है कि न केवल बच्चा बल्कि उसके माता-पिता तक भूल जाते हैं कि वे गर्मियों की छुट्टियों का आनंद उठा रहे हैं.

 

मई-जून माह में होने वाली गर्मियों की छुट्टियाँ विद्यालयों से दूर रहने वाले दिन अकेले नहीं हुआ करते हैं बल्कि इन छुट्टियों के द्वारा बच्चों में अपने परिजनों से मिलने, अपने आसपास के वातावरण को देखने-समझने, देशाटन करने, बिना किसी तरह का मानसिक बोझ लेकर साथियों संग समन्वय-सामंजस्य आदि की समझ विकसित हुआ करती है. अब गृहकार्य के नाम पर जिस तरह का मानसिक और किताबी बोझ बच्चों पर लाद दिया जाता है, उससे बच्चे गर्मियों की छुट्टियों का आनंद उठाना भूल ही गए हैं. एक पल को रुक कर सोचिए और महसूस करिए कि क्या आज के बच्चे गर्मियों की छुट्टियों में आम के बगीचों का आनंद ले पा रहे हैं? क्या वे ग्रामीण अंचलों में रह रहे अपने बाबा-दादी, नाना-नानी अथवा अन्य रिश्तेदारों के पास जा पा रहे हैं? रातों को खुले आसमान के नीचे चाँद-सितारों को निहारते हुए किस्से-कहानियों के कल्पना-लोक में विचरण करने जैसा सुख क्या आज के बच्चे ले पा रहे हैं? क्या आज के बच्चों द्वारा निष्फिक्र रूप में तालाब, नहर, बम्बा आदि में तैरने का मजा लिया जा रहा है? क्या ये बच्चे इन छुट्टियों में खेतों-खलिहानों को वास्तविक रूप में आत्मसात कर पा रहे हैं? ऐसी स्थिति के चलते आज के बच्चे नैसर्गिक वातावरण से बहुत दूर होते चले जा रहे हैं. यह वातावरण प्राकृतिक ही नहीं बल्कि पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि भी है.

 

ऐसा नहीं कि गर्मियों की छुट्टियों में मिलने वाला गृहकार्य आवश्यक नहीं, इसके द्वारा भी बच्चों का मानसिक और शैक्षणिक विकास होता है. छुट्टियों के दिनों में दिए गए प्रोजेक्ट के द्वारा उनके भीतर कुछ न कुछ नया सीखने की ललक पैदा होती है, जिज्ञासा जागती है. बावजूद इसके क्या आज मिलने वाले गृहकार्य के द्वारा ऐसा हो रहा है? विद्यालयों से गृहकार्य के नाम पर पाठ्यक्रमों की पूर्ति करवाई जाने लगी है. लम्बे-लम्बे लिखित किताबी कार्य देकर बच्चों को चौबीस घंटे किताबों में ही घुसे रहने को मजबूर किया जा रहा है. गृहकार्य के द्वारा अब न बच्चों के सामान्य ज्ञान को बढ़ाने पर ध्यान दिया जा रहा है, न उनकी हस्तलिपि को सुधारने पर जोर दिया जा रहा है, न ही कला-संगीत आदि किसी शौक को विकसित करने की पहल की जा रही है. अधिक से अधिक अंक लाने की अंधी दौड़, प्रवीणता सूची में सबसे ऊपर आने की कशमकश, अधिक से अधिक किताबी ज्ञान को दिमाग में भर लेने की कवायद के द्वारा बच्चों का बचपन तो पहले ही छीन लिया गया है, अब गर्मियों की छुट्टियों पर अप्रत्यक्ष डाका डालकर उनको सामाजिकता, पारिवारिकता, सांस्कृतिकता आदि से भी दूर किया जा रहा है.